Dhoop Ki RaunakeiN | Poetry by Prashant
उठ चुकीं हैं देख लो, धूप की रौनक़ें पहले ही
बची हुई रौशनी में, एक शाम कहो तो बना दूँ
उठ चुकीं हैं देख लो, धूप की रौनक़ें पहले ही
बची हुई रौशनी में, एक शाम कहो तो बना दूँ
मेरे अल्फ़ाज़ में
तेरे अन्दाज़ गर
शामिल ना होते
मुझे ख़यालों के
ये सब अहसास
हासिल ना होते
तुम हो हसीं तो हम हैं दीवाने
ये किसका क़ुसूर है
तुम फ़क़त कोई परी नहीं हो
कुछ ख़ास तो ज़रूर है
वो आँखों में रहता भी नहीं
वो आँखों से बहता भी नहीं
वो ख़फ़ा है आँखों की नमी पर
वो आँखों को सहता भी नहीं