Dhoop Ki RaunakeiN | Poetry by Prashant
उठ चुकीं हैं देख लो, धूप की रौनक़ें पहले ही
बची हुई रौशनी में, एक शाम कहो तो बना दूँ
उठ चुकीं हैं देख लो, धूप की रौनक़ें पहले ही
बची हुई रौशनी में, एक शाम कहो तो बना दूँ
फूलों से मिलिये
चाँद से बातें कीजिए
हक़ीक़त में सुंदर होते हैं
ख़्वाब देखा कीजिए
वो गहरी ज़ुल्फ़ों के छल्लों का उसके रुख़सार से खेलना
जन्नत की ख़ूबसूरती की इंतहा, इस मंज़र का क़तरा भर है
मेरे अल्फ़ाज़ में
तेरे अन्दाज़ गर
शामिल ना होते
मुझे ख़यालों के
ये सब अहसास
हासिल ना होते
मेरी हक़ीक़त में तू भले ही फ़क़त एक ख़्वाब है
मगर यक़ीन जान, मै ये वक़्त बदलना ही नहीं चाहता
सुनते थे गुल-ओ-गुलफ़ाम हैं
और मय छलकी रहती है
उन सुर्ख़ लबों से पर सच में
चिंगरियाँ उड़ती रहतीं हैं