Qaabil-e-Dushmani
लोग ऐसे हैं के कोई हमनशीं नहीं होता
आदमी की शक्ल में भी कोई आदमी नहीं होता
लौटा दिया जो आए थे दरखास्त लेकर
अब हर कोई तो काबिल-ए-दुश्मनी नहीं होता
लोग ऐसे हैं के कोई हमनशीं नहीं होता
आदमी की शक्ल में भी कोई आदमी नहीं होता
लौटा दिया जो आए थे दरखास्त लेकर
अब हर कोई तो काबिल-ए-दुश्मनी नहीं होता
कभी चाँद की बातें होतीं हैं
कभी ज़िकर तुम्हारा होता है
यूँ ही तनहाई के अंधेरों में
गुज़र हमारा होता
उठ चुकीं हैं देख लो, धूप की रौनक़ें पहले ही
बची हुई रौशनी में, एक शाम कहो तो बना दूँ
फूलों से मिलिये
चाँद से बातें कीजिए
हक़ीक़त में सुंदर होते हैं
ख़्वाब देखा कीजिए
वो गहरी ज़ुल्फ़ों के छल्लों का उसके रुख़सार से खेलना
जन्नत की ख़ूबसूरती की इंतहा, इस मंज़र का क़तरा भर है
मेरे अल्फ़ाज़ में
तेरे अन्दाज़ गर
शामिल ना होते
मुझे ख़यालों के
ये सब अहसास
हासिल ना होते
मेरी हक़ीक़त में तू भले ही फ़क़त एक ख़्वाब है
मगर यक़ीन जान, मै ये वक़्त बदलना ही नहीं चाहता
सुनते थे गुल-ओ-गुलफ़ाम हैं
और मय छलकी रहती है
उन सुर्ख़ लबों से पर सच में
चिंगरियाँ उड़ती रहतीं हैं