Qaabil-e-Dushmani

लोग ऐसे हैं के कोई हमनशीं नहीं होता
आदमी की शक्ल में भी कोई आदमी नहीं होता
लौटा दिया जो आए थे दरखास्त लेकर
अब हर कोई तो काबिल-ए-दुश्मनी नहीं होता

Dhoop Ki RaunakeiN | Poetry by Prashant

उठ चुकीं हैं देख लो, धूप की रौनक़ें पहले ही
बची हुई रौशनी में, एक शाम कहो तो बना दूँ

Fakira

मै वफ़ाओं का मुन्तज़र
और जफ़ाओं का ये शहर
सच ही कहता था फ़क़ीरा
तेरा कुछ हो नहीं सकता

AankheiN Sunaa Dee Humne

दिल की जो भी हसरत थी
गुनगुना दी हमने
लबों को वो ना समझे
आँखें सुना दी हमने